हजरत सैयद बदीउद्दीन अहमद जिन्दाशाह कुतुबुल मदार रजितालाअन्हा की खानकाह
मकनपुर शरीफ विशेषांक
यह मास तहसील बिल्हौर के लोगों के लिए बेहद खास है। मकनपुर शरीफ के इतिहास को याद करते हुए यहां सालाना उर्स/ मेला शुरू हो चुका है। मकनपुर की सरजमी का इतिहास वर्तमान की पीढ ी नही जानती उसके लिए यह बताना जरूरी है कि यह पावन भूमि आजादी की पहली चिंगारी के वीर सपूतों की खाक अपने में दफन किए हुए है। लोग भूल चुके हैं, लेकिन
हजरत सैयद बदीउद्दीन अहमद जिन्दाशाह कुतुबुल मदार रजितालाअन्हा की खानकाह के चारों ओर फैली मकनपुर की बस्ती में हजरत अबू तालिब उर्फ मजनू शाह मलंग की टूटी-फूटी मजार देखकर गुलजार करते हैं। मजनू शाह मलंग के किस्से अब क्षेत्रवासियों ने भुला दिए हैं। यह मजनूशाह वही है जो जिंदाशाह कुतुबुल मदार से प्रेरणा लेकर १७६० में पहली आजादी की जंग छेड ी थी। उस वक्त ब्रितानी हुकूमत में ऐसा करने में किसी भी राजा ने हिमायत नही की थी। विद्रोही संगठन में उस समय मजनू शाह के संग करीम शाह, रोशनशाह, देवी चौधरानी, भवानी ठाकुर, भवानंद तथा गिरि और शैव संप्रदाय के साधु-सन्यासी थे। ये सब हथियार के तौर पर सोटा और चिमटा का प्रयोग करते थे। मजनूशाह ने शबखून नाम युद्ध तकनीक बनाई थी। इसमें रात में दुश्मन के कैंपों पर हमला बोला जाता था। पूरी कार्यवाही में ये क्रांतिकारी साधु और मलंगों के भेष में फिरंगियों पर हमला बोलते थे। हिन्दु और मुस्लिमों के एक साथ विद्रोह में हिस्सा लेने पर इसे फिरंगियों ने पागलपंथी नाम दिया था। यह जंग १७६० से १८३३ तक जारी रही। साधु और मलंगों ने लगभग ७३ वर्षों तक अंग्रेजों की नाक में दम बनाए रखा। १८०० में पश्चिम बंगाल में में शबखून हमले के दौरान मजनूं शाह बुरी तरह चुटहिल हो गए। अंतिम समय में उन्हे मकनपुर लाया गया जहां उन्होंने अंतिम सांस ली। तभी मजनू शाह के मुरीद करीम शाह के पुत्र टीपू खां ने बागडोर संभाली। आठ वर्षों बाद वह भी शहीद हो गया। अंग्रेजों ने पूरा जोर मकनपुर शरीफ को तबाह करने में लगा दिया। मलंगों ने पनाह स्थल फूंक दिए गए, उन्हें तरह तरह की जिल्तों से प्रताड़ित किया गया। आजादी के समय प्रयोग में लाए गए फारसी में लिखित सैकड ों शिलालेख चीख-चीख कर अपनी उपस्थिती याद दिला रहे हैं। ये शिलालेख साल-दर-साल तेजी से विलुप्त हो रहे हैं।
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